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चुप्पी

~ऋचा नागर(2002) MUDDYING THE WATERS: COAUTHORING FEMINISMS ACROSS SCHOLARSHIP & ACTIVISM (2014) में पुनर्प्रकाशित


गढ़वाल के एक नुक्कड़ पर

हम दोनों इन्तज़ार कर रहे थे

एक ही बस का

और वो बैठी थी

दूकान की सीढ़ियों पर

अपनी आठ महीने की बिटिया को

छातियों से ज़बरन अलग किये

मानो कोशिश

कर रही हो

सारी भीड़ से

अपना सूखा जिस्म छिपाने की

 

बार बार बिटिया

उसके बदन से

अपना मुँह रगड़ती

और बार–बार वो ठेल देती उस

ज़िद्दी मुँह में

निपल लगी एक पानी की बोतल

 

लेकिन वो

नन्ही–दुबली ताकतवर जान

बोतल हटा कर हर बार माँ की

छाती से चिपक जाती

उसका भूखा ज़िद्दी मुँह पहले उन्हें

चिचोड़ता, फिर भूख से बेक़ाबू होकर

बेतरह चीखकर रोता

 

दो ही क़दम दूर

मैं चुपचाप

सब खड़ी देखती रही

गुनाहगार बनकर

 

गुनाहगार इस बात की नहीं कि

अपनी अट्ठारह महीनों की

औलाद को मैं ‘काम’ की वजह से

अमरीका छोड़ आई थी

 

बल्कि गुनाहगार उस

कड़वी ग़ैर-बराबरी की

जिसने उस औरत के बजाय

मेरी क़मीज़ दूध से भिगो डाली

जिसने लाख चाहने पर भी

रोक लिया मुझे उस

बच्ची को अपने भीतर

समेट लेने से

 

वो ही ग़ैर-बराबरी

जो ढीठ सी चट्टान बनकर

खड़ी हो गई मेरे

और उस औरत के दरमियान

और हमारे बीच गुज़रे

इस अधूरे

कठिन संवाद को जिसने

एक लम्बी

बोझिल चुप्पी के आगे

बढ़ने ही नहीं दिया।