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मरहम
~ऋचा नागर (2002) MUDDYING THE WATERS: COAUTHORING FEMINISMS ACROSS SCHOLARSHIP & ACTIVISM (2014) में पुनर्प्रकाशित
एक भीगी उदास अमरीकी शाम को
रात की बारिश की
टपर–टपर में
तुम्हारे लफ़्ज़
पता नहीं क्यों
मेरे छिले से दिल पर
मरहम बन कर फैल गये
और याद दिला गये
बाबा की उँगलियों की
जो बचपन में कोई गहरी चोट लग जाने पर
रात भर दर्द को सोखने में लगी रहती थीं
बाबा की आँखों की
जिन्हें नींद से झपकते
कभी देखा नहीं
वो बाबा जो हमारे सबसे
क़रीब थे
जिन्हें ख़ुश करने के लिये हम
उनके सामने
अपनी माँ की ख़ामियाँ
गिनाते थे
वो बाबा जो हमारे इतने सगे थे
कि उनके गुज़रने
के बाद ही हमने जाना
कि हमारे कुनबे के लिये
बस वो एक मामूली नौकर थे
और ईमानदारी से देखा जाये तो एक ऐसा
बँधुआ मज़दूर
जिसके आगे पीछे कोई नहीं था
तो बस
पता नहीं क्यों
अचानक तुम्हारे लफ़्ज़
नानी की कहानी
शहज़ादी और जिन्न
कुछ इसी तरह
फैल गये मन पर
जैसे मेरे बाबा की उँगलियों पर
अरसे से बिछा मरहम।