न तुम
मेरे पीपल हो
न मैं
तुम्हारी अमरलता
न तुम हो
आवारा बादल
न मैं
तुम्हारी जलधारा
दरअस्ल
हम-तुम हैं
दरकती हुई
दीवारों में
धंसी
सदियों पुरानी आंच
में पकी
लखौड़ी ईंटें
अपने इतिहासों की
आँधियों में झांकती
भूखी सीपों
की तरह
पोर-पोर में पीते
अपने वर्तमानों
के तूफ़ान
बार-बार उस
माटी में
भुरभुराकर
बिखरने के लिए
जिसमें से
उग सके
नयी कविता
बासी उपमाओं तुलनाओं ठप्पों से आज़ाद
कसकते दिलों की धौंकनी में
दहकते सच
अपने हिंसक इतिहासों की
ख़ामोशियों को
कोहराम मचाती चांदनी में
गुमनाम कुचले सूरजों की
रौशनी से चीरें
निर्भीक।