टीसों और मुस्कानों के साथ
याद आता है
शहर-ए-दार अस्सलाम
जिसकी हवायें, आवाज़ें, ख़ुशबू
और घाव
मेरे जिस्मोजान में
ठीक उसी तरह बस गये हैं
जैसे शाम-ए-अवध की साँसें
लेकिन
शहर-ए-दार अस्सलाम
जब तुम याद आते हो
पता नहीं क्यों
दर्द का ग़ु़बार
समेटे नहीं सिमटता
क्या इसलिये कि
मेरा ख़ून और रंगत
उन लोगों से ज़्यादा मिलते हैं
जिन्होंने तुम्हारा ख़़ून चूसा है?
टुकड़ा-टुकड़ा होकर जिनके ज़मीर
बिखर गये हैं दुनिया भर में?
या फिर उनसे
जो चाहकर भी
तुम्हारे न हो सके
क्योंकि उन्हें
अपनी चाहत दिखाने का
अपनी तवारीख़
अपने लफ़्जों में लिखने का
मौक़ा ही नहीं मिला?